कहानी | तूफ़ान की एक रात | स्टोरीबॉक्स विद जमशेद क़मर सिद्दीक़ी

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तूफ़ान की एक रात
राइटर – जमशेद क़मर सिद्दीक़ी

 

रात के दूसरे पहर में जह आसमान तेज़ बिजली की रौशनी से चौंक रहा था और ऐसा लगता था जैसे बारिश पिछले तमाम बारिशों का रिकॉर्ड तोड़ देगी… तूफ़ान के बाद शहर अंधेरे में डूब गया था। इसी अंधेरे में शहर की एक गली के नुक्कड़ पर बने मकान की तीसरी मंज़िल पर…. एक लड़की अपने कमरे की ज़मीन पर ऐसे बैठी थी जैसे ज़िंदगी ने उससे एक झटके में सब छीन लिया हो…तेज़ हवाएं उसके कमरे की खिड़की के कांच को थपथपा रही थीं। बारिश की बूंदों के गली की टपरियों की छत पर गिरने की एक मुसलसल आवाज़ अजीब सा शोर पैदा कर रही थी। अंधेरे कमरे में मोमबत्ती की पीली रौशनी में कमरे की ज़मीन पर बैठी कल्पना ने अपना चेहरे उठाया और आंसुओं से भरी धुंधली नज़र से पूरे कमरे को एक बार ग़ौर से देखा। कमरे की पीली दीवारें, छत, सजावट का सामान, चेस्ट ऑफ ड्रावर पर रखा वो छोटा सा लैंप जो उसे सुजीत ने पहली मुलाकात पर दिया था, वो खिड़की के किनारे पर रखी आराम कुर्सी जिस पर वो वीकेंड पर घर आने वाले सुजीत की गोद में बैठकर शाम की कॉफी पीती थी… वो लाल पीले रंग की अबूझ सी पेंटिंग जो उन्होंने आर्ट गैलरी से ली थी… उस घर की हर शय में अजीत शामिल था… हर कोने से अजीत का होना झलकता था… हर आहट अजीत की आहट थी… पर अब वो इस घर में कभी नही आएगा… बिजली तेज़ कड़की तो चेहरे पर गिरे उलझे हुआ बालों से कल्पना का चेहरा चमक उठा… उसने एक नज़र छत पर लटकते हुए पंखे को देखा। और फिर अपने गले में पड़े सुरमई दुपट्टे को… वो फैसला कर चुकी थी… वो मरना चाहता थी। 

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लेकिन मरने से पहले एक बार वो खिड़की से झांक कर बाहर के आसमान को देखना चाहती थी… वो देखना चाहती थी दूर तक फैले हुए शहर की टिमटिमाती हुई छोटी छोटी रौशनी को… जिसमें न जाने कितनी कल्पनाएं और अजीत होंगे जो एक दूसरे के साथ आने वाले कल के झूठे सपनें देख रहे होंगे… वो देखना चाहती थी सामने वाली सड़क पर भरे हुए पानी को जिसमें हर बारिश के बाद सड़क पर दौड़ते हुए बच्चे उछलकर छींटे उड़ाते हैं… वो ऊंची पीली बिल्डिंग के पीछे से झांकने वाले पेड़ को भी जिसे वो इतने सालों से देख रही थी कि उस पेड़ से उसे कुछ अपनापन सा हो गया था। पर अफ़सोस … अब इन सब चीज़ों से उसका साथ छूट जाने वाला था।

कल्पना उठी और खिड़की के पास पहुंची…. और फिर उसने उस पूरे शहर को एक बार ग़ौर से देखा… जो अजीत और उसकी मुहब्बत का गवाह था और अब अजीत की बेवफाई का भी। 
कल्पना की आंखों से बहते आंसुओं में उसका काजल भी बहकर गालों पर बिखर गया था। उसकी हिचकियां भी जारी थीं। उसने अपनी खिड़की से अपने हिस्से के आसमान को नज़र मे भरा और और फिर आंखें बंद कर लीं… वो पलटी और कमरे के बीचों बीच पहुंची और फिर उसने अपने गले से दुपट्टा उतारा। पास रखी कुर्सी को खींचा… दुपट्टे को पंखे की तरफ उछाला और फिर उसे बांधने लगे… जब वो ये सब कर रही थी तो उसे एक ख्याल ये भी आ रहा था कि उसने कभी नहीं सोचा था कि वो ऐसा करेगी… पर अब वो कर रही थी। उसे लगता था कि यही एक तरीका है जिससे वो अजीत को ऐसा गिल्ट दे देगी कि वो पूरी ज़िंदगी खुद को माफ़ नहीं कर पाएगा। आपसी झगड़ों में एक वक्त ऐसा आता है जब हम गलत और सही नहीं देखते… हम देखते हैं कि हमारी कौन सी बात से हमारे दुश्मन को सबसे ज़्यादा तकलीफ होगी… कल्पना को लगता था कि यही सही है…. और वैसे भी इस ज़िंदगी में अब बचा क्या है… और क्या है इस ज़िंदगी में जीने लायक… 

सात साल पहले जब वो बाराबंकी से इस बड़े शहर में आई थी तो कहां सोचा था कि किराए के एक कमरे में.. एक बिस्तरबंद, कुछ कपड़े, एक स्टोव और कुछ बर्तनों से शुरु होने वाली ज़िंदगी एक दिन उसे यहां पहुंचा देगी जहां वो कंपनी के इस बड़े से थ्री बीएचके अपार्टमेंट में रहेगी, कहां सोचा था कि तब जिन बड़े बड़े ऑफिस के रिसेप्शन पर वो अपना बायोडेटा जमा करने के लिए झिझकते हुए दाखिल होती थी एक दिन उसी ऑफिस में सीनियर मैनेजर की हैसियत से जब वो जाएगी तो जाने पहचाने चेहरे उसे गुड मॉर्निग मैम कहेंगे… शेयर्ड़ ऑटो से शहर में स्ट्रगल करने वाली कल्पना कब कंपनी की बड़ी सी गाड़ी में चलेगी ये भी उसे कहां पता था… पता तो उसे ये भी नहीं था कि ज़िंदगी की दी हुई जिन चीज़ों के लिए वो इतनी शुक्रगुज़ार है… ज़िंदगी एक रोज़ उससे सब कुछ झटके में छीन लेगी… अजीत की शक्ल में… उसके कानों में बार बार गूंज रहे थे अजीत के वो लफ्ज़ “आई एम सॉरी कल्पना लेकिन छ साल के हमारे रिश्ते में अब… मुझे लगता है कि वो स्पार्क नहीं रहा। मैं अब इस रिश्ते से निकलना चाहता हूं… आई वॉट टू ब्रेक अप विद यू”
रागिनी की आंखों से आंसू फिर से झरने लगे… अंधेरे कमरे में जलती इकलौती मोमबत्ती की रौशनी में चमकती उसकी धुंधली सी परछांई पीछे वाली दीवार पर बन रही थी। उसने दीवार पर लगी मम्मी पापा की तस्वीर को एक बार ग़ौर से देखा… पापा के चेहरे पर हलकी सी मुस्कुराहट और सर पर हलकी नीली साड़ी का पल्ला सर पर रखे भावशून्य सी मां… जैसे उसे देख रही थीं। काश तस्वीरें बोल सकतीं। अगर बोल सकतीं तो इस वक्त उससे कहतीं कल्पना रुक जाओ… रुक जाओ बेटी… जो तुम करने वाली हो ये… ये हमारे लिए एक ऐसा गम है … जो उम्र भर हमे रुलाएगा… ये गम हमें मत दो… मत करो ये…. पर तस्वीरें कहां बोलती हैं… 
कल्पना ने दुपट्टे का दूसरा सिरा… अपने गले में डाला…. और कांपते हांथों से उस कसने लगी… सर्द मौसम में उसके चेहरे पर पसीने की बूंद थी… जब मौत कानों में फुसफुसाती है तो ज़िंदगी के पसीने छूट जाते हैं। कल्पना ने गले में रस्सी को कसा और फिर कुर्सी पर अपने पैर जमाए…. वो जानती थी कि अगले सेकेंड वो गले में कसी रस्सी के सहारे झूल रही होगी… गले की नसें इस तरह कसी होंगी कि वो बेतरह रिग्रेट करेगी कि काश वो ये न करती… उसकी आंखे और ज़बान प्रेशर की वजह से बाहर आने लगेंगी… सांस के लिए वो तड़पेगी… औऱ फिर कुछ लम्हों के बाद…. कुछ भी नहीं रहेगा…. न गम…. न खुशी… न कोई य़ाद… न कोई अफसोस… सिर्फ एक गहरा शून्य सन्नाटा… 
पर वो तैयार थी… कल्पना ने पैरों को फिर से जमाया और जिस्म का पूरा वज़न संभाला और फिर वो कुर्सी से कूदने के लिए जैसे ही पीछे हुई…. दरवाज़े पर ज़ोर की दस्तक हुई। 
उसने चौंक कर बाहर वाले कमरे की तरफ देखा… जहां कोई ज़ोर-ज़ोर से उसका दरवाज़ा खटखटा रहा था। बिजली नहीं थी इसलिए दरवाज़ा भड़भड़ाना तो समझ आता है लेकिन इतनी ज़ोर से, जैसे दरवाज़ा नहीं खोला तो कोई तोड़कर अंदर आ जाएगा… ये बहुत अजीब था। 
कल्पना दीदी…. कल्पना दीदी… दरवाज़ा खोलिए… 
उसे हल्की हल्की आवाज़ सुनाई दी… ये आवाज़ तो शायद लता की थी… लता जो कल्पना के घर पर काम करती थी। हर सुबह आकर खाना बनाना, घर की सफाई करना, कपड़े धोना… ये सारा काम लता ही करती थी। कुछ तीन साढ़े तीन साल से वो कल्पना के यहां काम करती थी।  कल्पना ने गले से फंदा हटाया… कुर्सी से उतरी और कुर्सी को एक तरफ खिसका दिया। फंदे को पंखे के ऊपर उछाल दिया। 
कल्पना दीदी…. दरवाज़े पर आवाज़ और दस्तक तेज़ होती जा रही थी… कल्पना कमरे की तरफ बढ़ गयी। और झटके से दरवाज़ा खोला… तो बाहर की बारिश की आवाज़ के साथ दरवाज़े पर भीगी हुई लता खड़ी थी। 
दीदी… 
क्या हुआ लता… 
दीदी वो… अंजलि को करेंट लग गया है… 
क्या…
कल्पना चौंक गयी।
अंजलि लता की चार साल की बेटी थी। अक्सर लता उसे अपने साथ ले आती थी। अंजलि को एक कोने में बैठा कर वो पूरे घर में काम करती रहती। कभी कबार वीकऑफ के दिन अगर अंजलि अपनी मम्मी के साथ आती तो कल्पना आते-जाते उसे देखकर मुस्कुराती। 
हैलो… कल्पना मुस्कुरा कर कहती तो वो शर्माकर नज़रें झुका लेती
बिस्किट खाओगी? कल्पना पूछती तो वो सर उठाकर हां में हिलाती। कल्पना उसके किचन से बिस्किट ला कर देती और उसके उलझे हुए सूखे बालों में हाथ फिराती। 
तुम स्कूल जाती हो? 
हां… जाती हूं रोज़… वो बिस्किट खाते हुए बताती
क्या पढ़ना अच्छा लगता है आपको 
मुझे…. कहानियां अच्छी लगती हैं
अच्छा कौन सी कहानी पढ़ी… 
बंदर और चालाक लोमड़ी वाली… 
अच्छा क्या होता है उसमें…. बताओ…

वो मुस्कुरा कर सर झुका लेती… कल्पना उसके सर पर हाथ रखकर चली जाती। अंजलि प्यारी सी बच्ची थी। पर आज उसके बारे में जो बात लता बता रही थी वो सुन कर कल्पना कांप गयी। 

– क्या करेंट लग गया… कैसे? 
– घर की छत से पानी टपकता है… बारिश में घर के अंदर पानी आ गया था… पूरा फर्श गीला था… अंजलि ने लाइट जलाने के लिए स्विच बोर्ड छुआ… बस… 
– कहां है वो अभी… 
– उसके पापा अस्पताल ले गए हैं… पर दीदी… दीदी… आप की मदद चाहिए… वो लोग सुन नहीं रहे हैं… एडमिट नहीं कर रहे हैं… उसकी हालत बिगड़ रही है… मदद कर दीजिए प्लीज़…
– हां… हां… मैं.. चलती हूं… एक मिनट रुको… 

कल्पना फुर्ती से अंदर गयी और दीवार पर लटकी कार की चाभी उठाई… चप्पल पहनी और उसी हालत में बाल समेट कर पीछे बांधते हुए वो घर से निकलने लगी। निकलते वक्त उसकी नज़र पंखे के एक ब्लेड पर पड़े उसेक दुपट्टे पर पड़ी… जिसे अनदेखा करते हुए वो लता के साथ निकल गयी। 
तेज़ रफ्तार कार भीगी सड़क पर पानी उछालते हुए चलती चली जा रही थी। कल्पना की ड्राइविंग सीट के बगल में बैठी लता की हालत रो रो कर बिगड़ती जा रही थी। कई लाल बत्तियों और बारिश के ट्रैफिक जैम को तोड़ते हुए वो अस्पताल पहुंची। कार  पार्किंग में लगा कर वो दोनों सरकारी अस्पताल के बड़े से गेट से अंदर गयीं जहां से कई लोग अंदर बाहर आ रहे थे। 

 

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